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यादें

रातें अलग थीं अलग थीं वोह शामें अहसास अलग था अलग थीं वोह गुफ्तुगुएं था मैं अलग या अलग था वोह समा उन एहसासों और उन हक़ीक़तों के दरमियान क्या हुआ ऐसा क्या बदला ऐसा जिसकी तलाश में आज तक हैरान हूँ मैं कभी ताज्जुब होता है कभी बदहवासी भी मैं अलग था या मैं अलग हूँ मेरे इन दो अलगपनों में ऐसा क्या अलग था

छवि

छवि अपनी ढूँढने चला  मैं खड़ा था दर्पण के सामने जो दिखा वोह नकारते हुए चला मैं किसी और की खोज में क्या सच था जो देखा मैंने? या थी वोह किसी की कल्पना? ये अब तक जुटाने की कोशिश में मैं धूमिल थी वोह छवि संवेदना की पीड़ा में क्या कभी उभर भी पाऊंगा मैं इस वेदना से? की क्या सच है और क्या कल्पना मेरी इस छवि में? कहीं मैं ही धूमिल न हो जाऊं इस चक्रव्यूह में.