सिसकियाँ
फिर उठी एक चीख फटे हुए कपड़ों से फिर उठी एक चीख शरीर के चिथड़ों से फिर उठी एक चीख खामोश सिसकियों से उन आँखों से जो उम्मीद से भरी उन इंसानों की तरफ देखती जो अपनी इंसानियत को अपनी पतलून के साथ उतार फेंकते हैं फिर उठी एक आवाज़ धर्म के उन रक्षकों की फिर उठी एक आवाज़ समाज के उथल पुथल को कानून और संविधान की बेड़ियों से कुचलने वालों की फिर उठी आवाज़ अपने अस्तित्व की रक्षा करने वालों की फिर उठी आवाज़ खामोश बैठे तमाशा देखने वालों नपुंसकों की उठी एक ऊँगली जो काट दी गयी उठा जो हाथ काट दिया गया तना जो सर काट दिया गया दबा दी गयी वोह आवाज़ें लाठियों की आवाज़ में गायब कर दिए गए वोह आंसूं टीअर गैस की धुंद में अगर हर अस्तित्व की रक्षा की इच्छा से जन्मे जस्बे को काटना ही है तोह कहता हूँ मैं की काट ही डालो हर अंश को भर दो हर गली हर मोड़ हर सड़क हर मोहल्ला खून से भर दो इतना खून सब जगह की बहने लगे सिर्फ लाल रंग और बचे ही न कोई रंग शायद येही रंग एक नयी चेतना लाएगी शायद येही रंग एक नयी सुबह लाएगी