मैं
मैं और मय की खुशबु जब भी मेरे करीब आती मैं और मय की खुशबु जब भी मेरे करीब आती उम्मीदों की एक सुगबुगाहट जगा जाती कुछ घटता बाहर ऐसा जिसके संबोधन में आने की मेरी एक ख्वाहिश ही रह जाती किताबों के सफों के बीच उम्मीदों को दफना के जी रहा था मैं ऐसा की न मैं न मय ज़िन्दगी यूँ होती की कोई हसरत ही ना रह जाती